Total Pageviews

Friday, July 4, 2025

The Real Self.

तथागत  बुद्ध  

कल दिन भर बारिश होती रही। चार दिनों से रुक रुक कर हो रही है। कल दिन भर 05 जुलाई 2025  के दिन के बारे में ज्योतिषियों और भविष्यवक्ताओं के द्वारा व्यक्त और घोषित की गई  संभावनाओं के बारे में इंटरनेट पर देखता पढ़ता और सुनता रहा। बारिश चूँकि लगातार ही हो रही थी इसलिए बाहर कहीं जा पाना भी कठिन था, और न इसकी जरूरत ही थी। वर्डप्रेस पर एक ब्लॉग अंग्रेजी में लिखा।

आज 05 जुलाई 2025 है।

जैसा पिछले तीन वर्षों से भी अधिक समय से हो रहा है, आजकल जागते रहने या सोते रहने का कोई निर्धारित समय नहीं होता। प्रायः हर रात्रि में दो तीन घंटे जागता रहता हूँ। वैसे दिन में पर्याप्त नींद हो जाती है। और यथेष्ट आराम भी मिल जाता है। कितने घंटे सोए या जागे यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्व सिर्फ यह है कि शरीर और मन को पूरा आराम मिला या नहीं। अनवधानतावश मन को निरन्तर उत्तेजित होते रहने की आदत न हो तो यह स्वयं ही शान्त होने लगता है। दुर्भाग्यवश हमारी पूरी व्यवस्था इसके विपरीत चलने के लिए हमें बाध्य करती रहती है। विचार और भाषा, जो कि संवाद और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम हैं अपने ही कारागृह में बद्ध, बन्दी और कुंठित होकर रह जाते हैं और उसी परिसीमा / दायरे के अन्तर्गत पूर्णता की खोज और उसे पाने का प्रयास किया जाता है, इसलिए इस दुष्चक्र की समाप्ति नहीं हो पाती है। 

किसी ने दो पैराग्राफ़ लिखे थे जिन्हें पढ़ते हुए मन में कुछ प्रश्न उठे।  पहले तो उन दोनों पैराग्राफ़ के बारे में -

पहला पैराग्राफ़ :

I am in this world... 

से शुरू होता है।

मन में प्रश्न उठा कि "मैं" संसार में हूँ या संसार मुझमें है? दूसरे पैराग्राफ़ में किसी  Almighty  का उल्लेख था, जिसने इस संसार को बनाया और उसमें मुझे तथा दूसरों को यहाँ(!) भेजा ताकि यह संसार उसकी योजना के अनुसार किसी समय (अर्थात् किसी भविष्य में ही) - अपनी पूर्ण संभावना को प्राप्त हो सके।

इन दो पैराग्राफ्स पर ध्यान जाने पर सुबह 03:04 बजे के बाद एक नया पोस्ट लिखने के लिए थीम मिली। यह तो स्पष्ट ही है कि "थीम" या  theme  संस्कृत "धीं" का ग्रीक से आया हुआ अपभ्रंश पद है जिसे बुद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है।

बुद्धि, वृत्ति, स्मृति या प्रत्यय / पहचान जो कि "बोध" का परिणाम होता है। 

तब भगवान् बुद्ध की उस कथा की स्मृति जागृत हो उठी जो प्रायः मन में उठा करती है। लेकिन उससे भी पहले "विचार" की भूमिका क्या है इस पर कुछ कहना उचित और प्रासंगिक होगा।

 "I am in this world... "

यह घोषित किए जाने से पहले अस्तित्व और अस्तित्व के बोध अर्थात् चेतना नामक उस तत्व की विद्यमानता तो स्वयंसिद्ध है ही। क्योंकि अस्तित्व ही अस्तित्व का बोध है, और बोध ही अस्तित्व भी है, और दोनों शाब्दिक रूप से भिन्न भिन्न प्रतीत होने पर भी एक ही सत्ता हैं इस पर संदेह नहीं किया जा सकता।

अपने और उस संसार के अस्तित्व के भान के जागृत हो जाने पर ही इस द्वैत का आगमन होता है। और इसके बाद ही "मैं संसार में?" या "संसार मुझमें?" इस प्रश्न के उठने के संभावना होती है।

वैचारिक ऊहापोह 

इस प्रश्न के इन दो रूपों पर ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि "विचार" का आगमन जिस चेतना से, और फिर लय जिस चेतना में होता है, वह निःशब्द तत्व :

वैचारिक ऊहापोह

से विलक्षण निर्विचार चेतना अर्थात़् बोधमात्र संवेदन ही वह तत्व है, जिसमें विषय और विषयी का काल्पनिक भेद / विभाजन अनुपस्थित होता है। और कल्पना में ही इस विभाजन के आगमन के बाद ही "मैं संसार में?" या "संसार मुझमें?" यह प्रश्न निर्विचार बोधमात्र चेतना को अभिभूत overwhelm कर लेता है।

विचार (intellect) के आगमन के पश्चात्  ही वह नित्य निर्विकार वस्तु क्या है जो स्थान और समय के प्रभाव से अछूता रहती है और इस अर्थ में जिसे "सत्य" का नाम दिया जाता है और जैसे संसार की वस्तुओं को "प्राप्त" किया जाता है, उसी तरह उसे भी प्राप्त कर सकने की कल्पना की जाती है। जब तक संसार और "मैं" का अर्थ और प्रयोजन क्या है इस पर ध्यान नहीं दिया जाता तब तक मन उस असाधारण  सत्य नामक तत्व की "प्राप्ति" करने की लालसा में डूबा रह सकता है, जो कभी नया या पुराना नहीं हो सकता है। यह सब मृगतृष्णा और छलावा है, यह स्पष्ट होते ही "फिर नित्य क्या है?" यह जिज्ञासा जागृत होती है।

किन्तु साधारण मनुष्य की बुद्धि न तो इतनी परिष्कृत या शुद्ध होती है और न परिपक्व। वह तो जैसी भी उसकी बुद्धि होती है उसी बुद्धि से परिचालित होता है और यह अनुमान या कल्पना तक नहीं कर पाता है कि उसमें ऐसी बुद्धि कहाँ से प्रेरित होती है। इसका सरल सा उत्तर यह है कि उसके संस्कारों से जो उसके शुभ तथा अशुभ और मिश्रित कर्मों का परिणाम होते हैं। तो मजेदार बात यहाँ यह भी है कि कर्म संस्कारों को, और संस्कार कर्मों करने की प्रवृत्ति को जन्म देते हैं। गीता के अनुसार :

प्रकृतिः त्वां नियोक्ष्यति। 

प्रकृति तीनों गुण हैं और मन उसी प्रकृति के अधीन होता है। इसलिए मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतंत्र नहीं, विवश होता है। और फिर कर्मफल का भोग करने के लिए भी। किन्तु मनुष्य में ही यह स्वाभाविक क्षमता भी होती है कि वह कर्म और कर्मफल के संबंध को समझकर स्वयं के स्वतंत्र कर्ता होने की मिथ्या धारणा से छुटकारा पा सके। तब वह या तो "कर्ता" कौन है इस प्रश्न का उत्तर जानने की जिज्ञासा करे या सब कुछ उस परमात्मा पर छोड़कर केवल ऐसे कर्मों का ही अनुष्ठान करने जो नये कर्मों और कर्मफलों को उत्पन्न न होने दे। "कर्ता कौन है?" इस प्रश्न पर ध्यान देने पर उसे स्पष्ट होगा कि "कर्ता और कर्म की प्रेरणा प्रकृति का कार्य है, न कि "मेरा"। तो फिर प्रश्न यह उठता है - "मैं कौन?" 

यही मनुष्य की बुद्धि की मर्यादा है, जिसका अतिक्रमण वह नहीं कर सकता अर्थात् बुद्धि नहीं कर सकती।

इस पूरे प्रकरण में मनुष्य की जिस निष्ठा के बारे में कहा गया है उसे गीता में कर्म-निष्ठा कहा जाता है। दूसरी ओर जो मनुष्य 

"बुद्धि का आगमन कहाँ से होता है?"

इस बारे में अनुसंधान करते हुए "चेतना" तक पहुँच जाते हैं वे फिर उस चेतना के उस स्रोत में विलीन हो जाते हैं, जिसे ब्रह्म या परमात्मा कहा जाता है।

यह है सांख्यनिष्ठा। 

गीता में इसी बारे में अध्याय ३ में कहा गया है -

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

सांख्ययोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

यही दोनों योगक्षेत्र और कर्मक्षेत्र अर्थात् धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र हैं जिसमें हर मनुष्य युद्ध करने के लिए बाध्य होता है।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन के चार पुरुषार्थ हैं।

गीता अध्याय १० के अनुसार -

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।

सिद्धानां कपिलो मुनिः में कपिल मुनि का उल्लेख है।

कपिलवस्तु में राजा शुद्धोधन के जिस पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म हुआ उसने जीवन के दो पुरुषार्थों की, धर्म और अर्थ की सिद्धि कर ली थी और इसलिए उसे सिद्धार्थ का नाम प्राप्त हुआ। फिर उसमें आत्मज्ञान को प्राप्त करने की कामना / काम उत्पन्न होने पर उसने तप किया और फिर सत्य की प्राप्ति करने पर उसे "तथागत" कहा गया। इस प्रकार मनुष्य की धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की आध्यात्मिक यात्रा का उदाहरण उसने प्रस्तुत किया। 

उसके पिता का नाम था शुद्धोधन अर्थात् जिसे उस शुद्ध धन  wealth की प्राप्ति हुई थी जिसे कि विवेक और वैराग्य कहा जाता है। उसकी माता का नाम मायादेवी था, जिसने पुत्र के जन्म के बाद जल्दी ही संसार को छोड़ दिया था। उसकी पत्नी का नाम था यशोधरा जिसके पति अर्थात् सिद्धार्थ को यश प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्त होने पर उसका नाम गौतम हुआ जो उसका वही गोत्र था जिसमें भृगु,  कौशिक, उशना और वाजश्रवा का जन्म हुआ था।

यम-नचिकेता संवाद के रूप में कठोपनिषद् में इसी का उल्लेख है। उसे शाक्य मुनि भी कहा गया ।

शक्नोति -

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। 

कामक्रोधोद्भवोद्वेगं स युक्तः सः सुखी नरः।।२३।।

(अध्याय ५)

कर्म-निष्ठा में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करना मनुष्य की प्रवृत्ति / प्रकृति के अनुसार सहायक होता है, जबकि सांख्य-निष्ठा की प्रवृत्ति / प्रकृति का आध्यात्मिक रुझान  रखने वाले जिज्ञासु के लिए ईश्वर का अस्तित्व होने या न होने का कोई प्रश्न ही नहीं होता क्योंकि वह सीधे आत्मा को ही जानने का उत्सुक होता है और इस रूप में किसी भी प्रकार के द्वैत को नित्य सत्य की तरह ग्रहण नहीं कर सकता। इसका अर्थ यह नहीं कि वह ईश्वर का विरोधी या नास्तिक होता है। बुद्ध या महावीर को इस अर्थ में न तो ईश्वर-विरोधी और न ही नास्तिक कहा जा सकता है।

(यह सब मैंने उस ब्लॉग लेखक की पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में लिखा। शायद उसने मेरी टिप्पणी को अस्वीकार कर दिया या किसी और  technical error की वजह से यह टिप्पणी दिखाई नहीं दे रही है।)

किन्तु इस बहाने से बुद्ध पर कुछ लिखने का सौभाग्य मुझे मिला, तो इसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

***














No comments:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin

Followers

Blog Archive

About Me

My photo
ujjain, m.p., India
My Prominant Translation-Works Are: 1.अहं ब्रह्मास्मि - श्री निसर्गदत्त महाराज की विश्वप्रसिद्ध महाकृति "I Am That" का हिंदी अनुवाद, चेतना प्रकाशन मुम्बई, ( www.chetana.com ) से प्रकाशित "शिक्षा क्या है ?": श्री जे.कृष्णमूर्ति कृत " J.Krishnamurti: Talks with Students" Varanasi 1954 का "ईश्वर क्या है?" : "On God", दोनों पुस्तकें राजपाल संस, कश्मीरी गेट दिल्ली से प्रकाशित । इसके अतिरिक्त श्री ए.आर. नटराजन कृत, श्री रमण महर्षि के ग्रन्थों "उपदेश-सारः" एवं "सत्‌-दर्शनं" की अंग्रेज़ी टीका का हिंदी अनुवाद, जो Ramana Maharshi Centre for Learning,Bangalore से प्रकाशित हुआ है । I love Translation work. So far I have translated : I Am That (Sri Nisargadatta Maharaj's World Renowned English/Marathi/(in more than 17 + languages of the world) ...Vedanta- Classic in Hindi. J.Krishnamurti's works, : i) Ishwar Kyaa Hai, ii)Shiksha Kya Hai ? And some other Vedant-Classics. I am writing these blogs just as a hobby. It helps improve my skills and expressing-out myself. Thanks for your visit !! Contact : vinayvaidya111@gmail.com