Animal_/_Insect_Psychology
Life in the Jungle-House!
यह कहानी फरवरी-मार्च २०२३ में शुरू हुई।
उस समय जहाँ मैं रहता था वह स्थान नेेशनल हाइवे पर होने से लगभग शहर जैसा ही था, लेकिन बहुत-से छोटे बड़े गाँव उससे जुड़े हुए थे इसलिए आसपास लोगों ने फार्म हाउस बना लिए थे, जिनके चारों तरफ दूर दूर तक खेत थे, और मैं ऐसे ही सुविधायुक्त बड़े मकान में रहता था, और उसे जंगल-हाउस नहीं कहा जा सकता था।
फरवरी-मार्च २०२३ से जिस स्थान पर मैं रहने लगा, वह अवश्य ही जंगल में स्थित था और वहाँ से दो किलोमीटर दूूर तक बस जंगल और खेत ही थे। बिजली कभी होती थी, तो कभी दो तीन दिनों तक बिना बिजली के ही काम चलाना पड़ता था। इसीलिए उसे मैं जंगल हाउस कहने लगा। दिवाली से होली के बीच के दिनों के अलावा, बाकी दिनों में, शाम होते ही आसपास के जंगल और खेतों से, रौशनी से आकर्षित होकर छोटे-बड़े ढेरों कीड़े घर में आ जाया करते थे, और मैं उनसे त्रस्त रहता था। वही सिलसिला अभी भी जारी है। चूँकि मोबाइल का प्रयोग करना मुश्किल था, क्योंकि वे कीड़े इससे भी आकर्षित होते थे। मच्छरदानी लगाना शुरू किया तो वे उसमें भी घुसने लगते। तब वे मोबाइल की रौशनी से आकर्षित होते थे, इसलिए ऐसा करते थे। घुप अंधेरे में जरूरी होने पर दो सेकंड के लिए भी मोबाइल चालू कर पाना मुश्किल हो जाता था।
जब कोई कीड़ा मच्छरदानी में घुस जाता था तो उसको बाहर निकाल पाना भी एक नई मुसीबत हो जाता था।
कभी कभी तो रात भर इसी मशक्कत और जद्दोजहद में बीत जाती थी। फिर कई बार उन्हें प्लास्टिक की बॉटल में और कई बार तो हाथ में पकड़कर बाहर फेंक दिया करता था। पहले डर लगता था कि काट न लें फिर लगा कि जब तक उन्हें खतरा नहीं महसूस होता तब तक वे प्रायः काटते नहीं थे। संभवतः उन्हें यह कल्पना भी होती होगी कि अगर वे ऐसी स्थिति में किसी को काटेंगे तो वह उन्हें अवश्य ही अपनी प्रतिरक्षा करने के उपाय के रूप में चोट पहुँचा सकता है। हालाँकि फिर उनसे एलर्जी होने का डर भी मुझे लगा रहता था। तब लगा कि वे मनुष्यों की अपेक्षा कहीं अधिक संवेदनशील होते हैं, और पहले तो वे प्रायः उस कृत्रिम स्मृतिजनित बुद्धि का प्रयोग करने से बचने की ही कोशिश करते हैं जिसका प्रयोग करने के हम मनुष्य आदी / अभ्यस्त हो जाया करते हैं। उनकी छठी इंद्रिय अर्थात् स्वभाव उन्हें स्मृतिजनित बुद्धि का सहारा लेने से रोक देता है। चूँकि वे हमारी तरह किसी विशेष रूप से सृजित वैचारिक भाषा से अनभिज्ञ होते हैं, फिर भी अनेक अनुभवों की स्मृति तो उनमें ही होती ही है। स्मृति, पहचान और अतीत एक ही वस्तु के भिन्न भिन्न नाम हैं यह समझ स्वाभाविक रूप से उनमें होती है, और इसलिए जब भी किसी नई परिस्थिति, व्यक्ति या इन्द्रियानुभव से उनका सामना होता है, तो वे धैर्यपूर्वक उसे देखने और समझने का यत्न करते हैं। यह व्यवस्था उनके मस्तिष्क में पहले ही से इन-बिल्ट प्रोग्राम की तरह स्थापित होती है। और लगता है, शायद प्रत्येक ही प्राणी में ऐसा ही हुआ करता है, बस मनुष्य ही ऐसा एकमात्र प्राणी होता है जो इसे भूल जाया करता है, और कभी संयोग से जब कोई ऐसी नई बात उसे "सूझती" है या "कौंधती" है तो वह इसे "छठी इन्द्रिय" का या अंतर्दृष्टि का नाम देता है। इसलिए यह कहा जाना अनुचित नहीं होगा कि जैसे जैसे मनुष्य में शाब्दिक भाषा और विचार पर आधारित ज्ञान की वृद्धि होती है वह उस स्वाभाविक संवेदनशीलताजनित ज्ञान को भूलने लगता है जो अन्य सभी प्राणियों में जन्मजात रूप से विद्यमान होता है। हो सकता है कि ऐसा जीवों के क्रमिक विकास के माध्यम से लाखों करोड़ों वर्षों में हुआ हो, या मूलतः ही होता हो। जब कभी मैं इस प्रकार से प्लास्टिक की किसी पारदर्शी शीशी में उसे पकड़ लेता और कुछ समय तक उसका अच्छी तरह से निरीक्षण करने के बाद उसे बाहर जाकर खुले में आकाश में उछाल देता तो वह उस नई स्थिति का सामना करने के लिए मानों पहले से तैयार ही रहता था। वह शीशी से इस तरह गिरता मानों वह कोई निर्जीव वस्तु हो। शायद पहले से ही आसपास के संभावित खतरों का अनुमान कर चुका होता था। उसके अनेक प्राकृतिक शत्रु जैसे छिपकली, मेंढक और छोटे बड़े अनेक पक्षियों से कैसे बचना, और सावधान रहना यह उसे सीखना नहीं होता था। जैसे मछली के लिए तैरना सीखना नहीं होता, और जैसे चूहे या कुत्ते भी आसानी से या कुछ कठिनाई से तैरना सीख लेते हैं क्योंकि उनके शरीर की संरचना और आकार भी इसके लिए शायद अनुकूल होता है, जबकि गाय बैल, बकरियों और भेड़ों के लिए तैर पाना सर्वाधिक मुश्किल होता है। मुझे लगता हैं जंगल हाउस में रहते हुए बहुत सी ऐसी बातें मैंने सीखी, जिन्हें शहर में रहते हुए सीखना आसान नहीं है।
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