Desire and In-attention:
कामना और अनवधानता : अज्ञान के दो चरण
अव्यक्त और व्यक्त
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २
अव्यक्तादीनि भूतानि मध्यव्यक्तानि भारत।
अव्यक्त निधनान्येव तत्र का परिदेवना।।२८।।
मन अर्थात् चित्त, केवल व्यक्त रूप में ही नित्य विद्यमान और अस्तित्वमान होता है। और इस मन में ही अव्यक्त की कल्पना उठती है और उसे ही
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।
(समाधिपाद - ६)
प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, स्मृति, और निद्रा
इन पाँच प्रकारों में "वृत्ति" का नाम दिया जाता है।
नित्य विद्यमान समष्टि मन केवल वर्तमान (present and now) ही है जबकि अज्ञान ही उपरोक्त पाँच रूपों में "वृत्ति" की तरह - व्यक्त से अव्यक्त, और अव्यक्त से व्यक्त रूप धारण किया करता है । व्यक्त होने पर यही अज्ञान, व्यक्ति और उसके संसार में विभक्त हो जाता है।
अनवधानता / In-attention ही वृत्ति है और यही संकल्प, कामना, भय, आशा, और द्वन्द्व-रूपी -
अविद्यास्मितारागद्वेषाः अभिनिवेशाः पञ्चक्लेशाः।। (साधनपाद -३)
अविद्या अस्मिता राग-द्वेष और अभिनिवेश
नामक पाँच क्लेश हैं।
यही व्यक्त आता-जाता रहनेवाला व्यक्तिगत मन अर्थात् व्यक्ति-विशेष के रूप में अहंकार और उसका संसार है, जबकि समष्टि-मन इन सब की समष्टि है जिसमें व्यक्ति होने की भावना तक का अत्यन्त अभाव होता है। वह सत्, चित् तथा परिपूर्ण अस्तित्व मात्र है।
पञ्च महाभूतों के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न शरीर-विशेष में पञ्च-प्राणों का उन्मेष / उत्स्फूर्त होने पर व्यक्ति-भाव अस्तित्व में आता है, और यही अज्ञान अर्थात् अविद्या है। इस प्रकार प्रकृति में अनवधानता के प्रभाव से अभिभूत व्यक्ति, शरीर-विशेष से संलग्न चेतना-विशेष है। यह सब औपचारिक सत्य है। इसी औपचारिक-सत्य के आधार पर व्यावहारिक-सत्य प्रतीति में पाया जाता है जो पुनः उन्हीं पाँच वृत्तियों के रूप में व्यक्ति और उसका कल्पित संसार होता है।
ऊपर उद्धृत अध्याय २ के श्लोक २८ में जिसे "भूतानि" कहा गया है वह यही व्यक्ति है।
अनवधानता और अहंकार, अज्ञानतावश ही परस्पर भिन्न प्रतीत होते हैं। अनवधानता अज्ञान का स्थायी / स्थिर पक्ष है, जबकि अहंकार अज्ञान का गतिशील पक्ष है।
फिर मृत्यु क्या है?
जैसा कि उपरोक्त श्लोक में कहा गया, व्यक्ति-चेतना अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण कर पुनः अव्यक्त में ही लौट जाती है, इसलिए एक शरीर में जीवन बिताकर उसे त्याग देती है और एक नया शरीर ग्रहणकर उस शरीर में पुनः व्यक्त रूप में जीवन बिताने लगती है। निद्रा में जाने पर हम एक स्वप्न शरीर ग्रहण कर लेते हैं जो कि स्वप्नलोक में हमारा अस्तित्व होता है, उसी तरह इस शरीर के नष्ट हो जाने के बाद या तो किसी स्वप्न-शरीर के माध्यम से हम स्वप्नलोक में विचरण रहते हैं, या पुनः किसी योनि में जन्म लेकर शरीर के रूप में दया जीवन जीने लगते हैं। जैसे हमारे द्वारा देखे गए अनेक स्वप्नं में से अधिकांश हम भूल जाते हैं, वैसे ही एक नये शरीर को धारण करने पर पुराने शरीर के माध्यम से अनुभव किए गए जीवन को भी हम लगभग भूल जाते हैं और किसी किसी समय वे हमें याद भी आ जाया करते हैं, जिसका प्रमाण भी समय समय पर मिलता रहता है। शास्त्रों के अनुसार यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य के रूप में जी लेने के बाद मृत्यु हो जाने पर हमें पुनः मनुष्य-शरीर ही मिले, यह भी संभव है कि हम किसी अन्य योनि में जन्म लें। इस प्रकार के अनुमानों में व्यस्त रहने और संशय में पड़े रहने से अच्छा यही है कि हम व्यक्ति के रूप में क्या हैं ओर हमारे उस रूप की सत्यता कितनी क्षणिक है इस पर हम ध्यान दें।
श्रीमद्भगवद्गीता भी महर्षि पतञ्जलि के योग-शास्त्र जैसा ही योग-विषयक ग्रन्थ है, इसलिए दोनों ही के माध्यम से इस बारे में आगे और अन्वेषण कर सकते हैं और इस तरह से हम सत्य का साक्षात्कार भी कर सकते हैं।
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